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कविता

मेरे पास कहने को कुछ खास नहीं है

कुमार विक्रम


मेरे पास कहने को कुछ खास नहीं है
बस आडंबरी शब्दों का एक ढेर है
जिन पर बैठ मैं उनके तरह तरह के पर्यायवाची रूप
ढूँढ़ता, गढ़ता, बोलता, लिखता रहता हूँ
कुछ वैसे ही
जैसे कोई बड़ा नेता
हर तरह के संस्कृतियों के लिबास, टोपी, रंग पहन पहन कर
खुद को बहुरूपिया सा पेश करने का स्वाँग रचता रहता है
दरअसल शब्द कोशो, समांतर कोशों, विश्वकोशों के बगैर
मेरी अनुभूति, अभिव्यक्ति, अनुभव
उस कुबेर की तिजोरी के सामान हैं
जिनसे अगर काला धन का एक एक कतरा निकाल दिया जाए
तो अंततः गाढ़ी पसीने की खुशबू से सुगंधित
एक पैसा भी ना मिले
आश्चर्य नहीं कि दिन प्रति दिन
सरल शब्दों को और भी विकट, दुरूह, और समझ से परे
बनाने-गढ़ने की अंतहीन परंपराओं को
सुढृढ करने की हर प्रयासों में
मैं हमेशा तत्परता से शामिल रहता हूँ
ठीक उसी तरह जैसे
सरल, मीठी, सादी, सुलभ नदियाँ
दौड़ दौड़ कर तत्परता से
खारे, रहस्यमय, घाघ समुद्र में कूदती जाती हैं


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